यूनेस्को विश्व धरोहर स्थलों की खोज में मेरा अगला पड़ाव है बनारस रिवर फ्रंट। यह एक सांस्कृतिक साईट है जिसे सन २०२१ में यूनेस्को ने विश्व धरोहर स्थलों की सूचि(संभावित) में स्थान दिया।
दुनिया के हर देश की एक अलग पहचान होती है। अमरीका की पहचान एक ताक़तवर राष्ट्र के रूप में है तो वहीँ जापान की पहचान तकनिकी रूप से अग्रणी के रूप में। ब्रिटेन को राजनीति के क्षेत्र में अग्रणी माना गया हैं, तो वहीँ हमारे देश की पहचान हमारे देश की मौलिक अध्यात्मिक पूंजी है। इसी अध्यात्मिक देश की सांस्कृतिक राजधानी का दर्जा प्राप्त है काशी को। काशी यानि बनारस को। पुराणों में इस प्राचीन नगर की व्याख्या अनेक रूपों में की गई है। इसके नामकरण की बात करें तो काशी नाम यदुवंश के एक राजा काश्य के पुत्र काशी के नाम पर पड़ा। वहीँ वाराणसी शब्द वरुणा और अस्सी से मिल कर बना। यहाँ दक्षिण में अस्सी और उत्तर में वरुणा नदी बेहती है। इसी क्षेत्र को अविमुक्त क्षेत्र कहते हैं।
भारत की सांस्कृतिक विरासत की मेरी खोज नालंदा से होकर अब बनारस के घाटों की ओर बढ़ रही है। मैंने नालंदा से रात की गाड़ी पकड़ी और सुबह सवेरे ही बनारस पहुंच गई। बनारस आदिकाल से जिवंत शहर है। कहते हैं बनारस की सुबह यादगार होती है तो मैं भी एक ऐसी ही एक सुबह बनारस के रेलवे स्टेशन पर उतरी हूं और मुझे अपनी इस यात्रा में बनारस के घाटों को डॉक्यूमेंट करना है।
इस प्रकार मैं सुबह सवेरे मैदागिन(गंगा घाटों के नजदीक एक चौराहे का नाम) पहुंच गई। जहां मुख्य सड़क लोगों से खचाखच भरी हुई थी यहीं से आगे चौक तक जाने वाली सड़क से लगी किसी भी गली में प्रवेश कर लीजिए वह गली आपको किसी न किसी घाट तक पहुंचा ही देती है।
इन गलियों की यात्रा आपको जीवन दर्शन कराती है। मैदागिन से होते हुए जैसे ही आप चौक की ओर बढ़ते हैं, बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने वाले हजारों लोगों की भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं। लोग बस चले जा रहे हैं। यहाँ गाड़ियों की आवाजाही बंद रहती है। यहां सड़क के दोनों ओर भांति-भांति के खान-पान की दुकान सुबह सवेरे ही सज जाती है। एक तरफ गरम-गरम डोसा बना रहा है तो दूसरी तरफ कचौड़ी, जलेबी, पूरी और पहलवान की लस्सी। आगे चलकर लक्ष्मी चाय वाले पर अदरक की चाय की महक और बन मस्का मिल रहा है। आप इन स्वाद के चटखारों को महसूस करते हैं और तभी मुड़कर देखते हैं तो आपके बराबर से आवाज सुनाई देती है, राम नाम सत्य है। राम नाम सत्य है। किसी का पार्थिव शरीर आपके बराबर से होकर ऐसे गुजर जाता है जैसे कोई ठंडी हवा गुजर गई। दिन भर में यह दृश्य कम से कम 8 से 10 बार घटित होता है क्योंकि यही वह रास्ता है जहां से होकर मोक्ष प्राप्ति के लिए पार्थिव शरीर मणिकर्णिका घाट तक पहुंचाए जाते हैं। इस द्रश्य को देख यहाँ नया-नया आने वाले व्यक्ति एक पल को ठहर जाता है, ठिठक जाता है। लेकिन यही वह जीवन का पाठ है जो काशी सबको पढ़ाता है। शरीर नश्वर है। भूख सत्य हैं। लोग सदियों से इस धरती पर जन्म ले रहे हैं और अपनी जीवन यात्रा पूरी कर शरीर को त्याग कर आगे बढ़ रहे हैं। काशी सदा से जीवित है और सदा जीवित रहेगी।
जब आप तंग गलियों से होकर घाट की ओर जाते हैं तो सहज ही 108 साल पुरानी पान की कोई दुकान मिल जाती हैं। जहां के मगही पान की गिलोरी अगर अपने मुंह में दबा ली है, तो केवल आपका जी ही नहीं आत्मा भी खुशबू से भर जाएगी। यह कोई ऐसा वैसा पान नहीं है जनाब, यह खास पान मार्च-अप्रैल के महीने में मिलता है, और एक विशेष प्रक्रिया से होकर इसकी गिलोरियां बनाई जाती हैं। इस पान को खाने का भी एक सलीका है। मगही पान की गिलौरी को चबाया नहीं जाता बस मुंह में एक साइड दबा लिया जाता है। खुशबू से भरा हुआ यह पान धीरे-धीरे अपनी महक और रस छोड़ता है और आपके गले को तर करता जाता है। अगर एक बार आपने मगही पान की गिलौरी मुंह में दबा ली है तो स्वाभाविक है कि आपको पान खाने की लत लग जाए। ऐसे ही बनारसी पान के चर्चे पूरी दुनिया में नहीं है।
यहाँ के लोग तंग गलियों में बनारसी पान और चाय की चुस्कियां के साथ एक अलग मस्ती में जी रहे हैं। यह बनारस की ठसक है साहेब। सारी दुनिया से लोग यहां आते हैं यहां के लोग कहीं नहीं जाते। अपनापन ऐसा की गालियों के बिना संबोधन अधूरा माना जाता है। इन गलियों में कितने ही छोटे-बड़े मंदिर हैं जहां से हर हर महादेव की गूंज इस पूरे आभामंडल को भरा करती है।
जैसे-जैसे यह गलियां मुड़ती जाती हैं आप भी मुड़ जाइए और आप गंगा जी के घाट की सीढ़िया तक पहुंच जाएंगे। अलबत्ता रास्ते में आपको गाय, गोबर और सांड जरूर मिलेंगे। लेकिन यहां के लोगों ने उनके साथ एक सहज भाव में जीना स्वीकार कर लिया है। हालांकि इन गलियों में कचरा उठाने के लिए दिन में तीन बार सफाई कर्मचारी काम करते हैं। जैसे ही हम घाट की सीढ़िया पर पहुंचते हैं ऊंची-ऊंची सीढ़ियां हमें गंगा जी के तीर तक लेकर जाती हैं। इन्हें लांघ कर ही आप गंगा जी को पाएंगे। दक्षिण दिशा में अस्सी घाट से शुरू होकर नमो घाट तक गंगाजी एक अर्धचन्द्र आकार में बेहती हैं। यहां एक कतार में घाट सजे हुए हैं। हर घाट का एक इतिहास है। हर घाट की एक कहानी है। इसका इन घाटों का अलग-अलग स्थापत्य उसे घाट को बनवाने वाले राजाओं के पारंपरिक स्थापत्य कला का नमूना प्रस्तुत करता है। आज भले ही स्मार्ट सिटी के माध्यम से इन घाटों को एक रूप देने के लिए लाल पत्थर से सजाया जा रहा है लेकिन यहां जो प्राचीन संरचनाएं हैं वह सब अपने में अनोखी और प्राचीन स्थापत्य का परिचय देती हैं। वैसे तो बनारस में 84 से अधिक घाट हैं। और हर घाट का अपना एक महत्त्व और इतिहास है लेकिन यहाँ कुछ घाट अधिक प्रसिद्ध हैं, जिनके बारे में आपको यहाँ संचिप्त में जानकारी देना चाहूंगी जैसे, अस्सी घाट, दशाश्वमेध घाट, मणिकर्णिका घाट, हरिश्चंद्र घाट, केदार घाट, तुलसी घाट, ललिता घाट जिसे नेपाली घाट भी कहते हैं।
दशाश्वमेध घाट
यह घाट काशी के सबसे महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध घाटों में से एक है। इसका इतिहास पौराणिक कथाओं और ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़ा हुआ है। कहते हैं, भगवान ब्रह्मा ने भगवान शिव का स्वागत करने के लिए इसी स्थान पर दस अश्वमेध यज्ञ किय था । “दशाश्वमेध” का शाब्दिक अर्थ है “दस घोड़ों का बलिदान”। इस कथा के कारण इस घाट का नाम दशाश्वमेध घाट पड़ा।
एक अन्य किंवदंती यह भी है कि भगवान ब्रह्मा ने स्वयं इस घाट का निर्माण किया था। हालांकि घाट की उत्पत्ति प्राचीन मानी जाती है, लेकिन वर्तमान स्वरूप 18वीं शताब्दी में बना। सन 1748 में, पेशवा बालाजी बाजी राव ने इस घाट का पुनर्निर्माण करवाया था। कुछ दशकों बाद, 1774 में इंदौर की मराठा रानी अहिल्याबाई होल्कर ने इस घाट का फिर से जीर्णोद्धार करवाया और इसे वर्तमान स्वरूप दिया।
दशाश्वमेध घाट हिंदुओं के लिए एक अत्यंत पवित्र स्थान है। यह माना जाता है कि यहां गंगा में स्नान करने से पाप धुल जाते हैं और आत्मा शुद्ध होती है। यह घाट विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों, जैसे पिंडदान, तर्पण और अस्थि विसर्जन के लिए महत्वपूर्ण है।
यहां हर शाम भव्य गंगा आरती का आयोजन होता है, जो एक प्रमुख आकर्षण है और बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं और पर्यटकों को आकर्षित करता है। यह आरती गंगा नदी के प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा व्यक्त करने का एक सुंदर अनुष्ठान है।
यह घाट काशी विश्वनाथ मंदिर के निकट स्थित होने के कारण और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। इस प्रकार, दशाश्वमेध घाट न केवल एक ऐतिहासिक स्थल है, बल्कि यह हिंदू धर्म और संस्कृति का एक जीवंत केंद्र भी है, जो अपनी पौराणिक कथाओं, ऐतिहासिक महत्व और दैनिक धार्मिक गतिविधियों के कारण विशेष स्थान रखता है। इस घाट पर आह्वान अखाड़ा मौजूद है जिसका सम्बन्ध जूना अखाड़े से है।
अस्सी घाट
अस्सी घाट वाराणसी के सबसे महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध घाटों में से एक है। अस्सी घाट को वाराणसी का दक्षिणी प्रवेश द्वार भी माना जाता है। इसकी महत्ता के कई कारण हैं: यह घाट उस स्थान पर स्थित है जहाँ अस्सी नदी गंगा नदी से मिलती है। इस संगम को पवित्र माना जाता है और यहाँ स्नान करना अत्यंत फलदायी माना जाता है। यहाँ एक महत्वपूर्ण शिव लिंग स्थापित है, जिसे असिसंगमेश्वर लिंग के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि इस लिंग की पूजा करने से सभी तीर्थों के दर्शन का फल मिलता है।इसे काशी के पंच तीर्थों में से एक माना जाता है।
अस्सी घाट पर प्रतिदिन सुबह सुबह-ए-बनारस नामक एक प्रसिद्ध सांस्कृतिक और आध्यात्मिक कार्यक्रम आयोजित होता है। इसमें वैदिक मंत्रोच्चारण, योग, ध्यान और शास्त्रीय संगीत जैसे कार्यक्रम होते हैं, जो पर्यटकों और स्थानीय लोगों को आकर्षित करते हैं। अस्सी घाट कई महत्वपूर्ण हिंदू त्योहारों जैसे महाशिवरात्रि और देव दीपावली के दौरान विशेष रूप से जीवंत हो उठता है। इन अवसरों पर यहाँ बड़ी संख्या में श्रद्धालु और पर्यटक एकत्रित होते हैं।
तुलसी घाट
अस्सी घाट का एक हिस्सा तुलसी घाट के रूप में जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि महान संत और कवि तुलसीदास ने इसी घाट पर बैठकर रामचरितमानस के कुछ हिस्सों की रचना की थी और यहीं पर उन्होंने अपना शरीर त्यागा था। यहाँ ऊपर एक कुटिया हुआ करती थी जहाँ तुलसी बाबा रहा करते थे। यहीं संकटमोचन के महंत जी की बैठक भी है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवी दुर्गा ने शुंभ-निशुंभ नामक राक्षसों का वध करने के बाद अपनी तलवार यहीं फेंकी थी, जिससे अस्सी नदी का उद्गम हुआ।
यह घाट स्थानीय लोगों और पर्यटकों के लिए एक महत्वपूर्ण सामाजिक केंद्र भी है। लोग यहाँ सुबह-शाम टहलने, बैठने और गंगा के मनोरम दृश्य का आनंद लेने आते हैं।
अस्सी घाट विदेशी पर्यटकों के बीच भी काफी लोकप्रिय है, खासकर लंबी अवधि के छात्रों, शोधकर्ताओं और पर्यटकों के लिए यह एक पसंदीदा स्थान है।
अन्य प्रमुख घाटों की तुलना में, अस्सी घाट अपेक्षाकृत शांत और अधिक सुकून देने वाला वातावरण प्रदान करता है, जो इसे ध्यान और आत्मचिंतन के लिए एक आदर्श स्थान बनाता है। यहाँ से गंगा में नाव की सवारी करना भी एक लोकप्रिय गतिविधि है, जिससे अन्य घाटों और शहर के सुंदर दृश्यों को देखा जा सकता है।
शिवाला घाट :
यहाँ थोडा आगे बनारस के महाराज द्वारा बनवाया हुआ शिवाला महल मौजूद है। महल के उत्तर में पंच कोटि मंदिर है। ये एक प्राचीन घाट है, कहते हैं सातवीं शताब्दी के आसपास संख्य दर्शन के प्रवर्तक और महान दार्शनिक कपिल मुनि निवास करते थे। यहीं घाट के ऊपर एक मस्जिद भी बनी हुई है ।
इसी घाट से लगा निर्वाणी अखाड़ा है जिसके ईष्ट देव महामुनि कपिल माने जाते हैं। यहाँ एक और अखाड़ा है जिसे निरंजनी अखाड़ा भी कहते हैं जिसके ईष्ट देव कार्तिकेश्वर भगवान माने जाते हैं।
हनुमान घाट :
इस घाट का नाम यहाँ पर बने प्राचीन हनुमान मंदिर से पड़ा है। यह साधू समाज का एक महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ जूना अखाड़ा है यहीं पर वल्लभाचार्य जी निवास करते थे। इसी घाट के ऊपर श्रीकृष्ण वेद वेदांग संस्कृत महाविद्यालय स्थित है।
हरिश्चंद्र घाट
इस घाट का नाम राजा हरिश्चंद्र के नाम पर रखा गया । राजा हरिश्चंद्र त्याग और सत्य के प्रति निष्ठां के लिए पूरे देश में जाने जाते हैं। लोग उनकी सत्यता के उदाहरण देते हैं। उनके जीवन से जुड़ी एक कथा का सम्बन्ध इस घाट से माना जाता है। कहते हैं सत्य के लिए राजा हरिश्चंद्र ने बहुत कष्ट सहे और जब उनको कहीं शरण नहीं मिली तो वह काशी पहुंचे और इस घाट पर डोम राजा ने उनको खरीद कर मदद की।
मणिकर्णिका घाट
दशाश्वमेध घाट के बाद जो दूसरा सबसे प्रसिद्द घाट है, वह मणिकर्णिका घाट कहलाता है । यह केवल एक घाट नहीं है बल्कि एक शक्ति पीठ भी है। यहाँ देवी सती के कान के आभूषण (मणिकर्ण) गिरे थे, जिसके कारण इसका नाम मणिकर्णिका पड़ा। इसके अलावा कहा जाता है कि भगवान शंकर पार्वती माँ को जब संसार का भ्रमण करवाने निकले और काशी आए तो यहाँ माँ पार्वती के कान की एक बाली इस कुंड में गिर गई थी। तभी से इसका नाम मणिकर्णिका पड़ा। काशी स्थित पंच महातिर्थों में से एक माना गया है। पंचकोशी यात्रा करने वाले श्रद्धालु यहाँ दान पुण्य कर अपनी यात्रा यहीं से आरंभ करते हैं।
मणिकर्णिका घाट वाराणसी के सबसे महत्वपूर्ण घाटों में से एक है और इसका गहरा धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व है। ऐसा माना जाता है कि यदि किसी व्यक्ति का दाह संस्कार मणिकर्णिका घाट पर किया जाता है, तो उसकी आत्मा को मोक्ष (जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति) प्राप्त होती है। इसलिए, दूर-दूर से लोग अपने प्रियजनों का अंतिम संस्कार यहाँ कराने आते हैं।
मणिकर्णिका घाट वाराणसी के सबसे पुराने घाटों में से एक है, जिसका उल्लेख 5वीं शताब्दी के गुप्त शिलालेखों में भी मिलता है। इसकी प्राचीनता और निरंतर दाह संस्कार की परंपरा इसे एक अद्वितीय स्थान बनाती है।
यहाँ एक शाश्वत अग्नि जलती रहती है, जिसके बारे में माना जाता है कि यह हजारों वर्षों से प्रज्वलित है। इसी अग्नि से दाह संस्कार के लिए आग ली जाती है। यह घाट न केवल दाह संस्कार के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों और प्रार्थनाओं के लिए भी एक महत्वपूर्ण केंद्र है।
मणिकर्णिका घाट जीवन की क्षणभंगुरता को दर्शाता है। हम सब को एक दिन इसी प्रक्रति में मिल जाना है। घाट पर जलती चिताओं को आप नजदीक से देख सकते हैं। कहते हैं जिसकी चिता यहाँ जलती है उसको मोक्ष मिलता है। यह एक व्यस्ततम घाट है जहाँ चिता जलाने वालों की भीड़ हर समय देखी जा सकती है। इस घाट के बराबर में एक आधुनिक शवदाह गृह का निर्माण कार्य ज़ोरों पर चल रहा है।
केदार घाट
इस घाट का अपना एक अलग ही ऐतिहासिक एवं पौराणिक महत्व है। इस घाट पर केदारेश्वर महादेव मंदिर स्थित होने के कारण इसका नाम केदार घाट पड़ा। यहाँ एक पवित्र कुंड है, जहाँ स्नान करने का विशेष महत्व है। इस घाट पर केदारेश्वर महादेव मंदिर, कुमारस्वामी मठ, गौरीकुण्ड तथा हरम् पाप तीर्थ भी स्थित हैं। यह घाट स्नान-दान एवं दर्शनार्थियों के लिए विशेष महत्व रखता है। यहाँ स्थित कुण्ड एवं तीर्थ में दैनिक स्नानार्थियों के साथ ही पर्व विशेष पर स्नान करने वालों की संख्या अधिक होती है। इस घाट पर दक्षिण भारतीय लोगों की बहुत भीड़ होती है। दक्षिण भारतीय लोगों का महाकुंभ के नहान का विधान है। कहते हैं जिनको संतान प्राप्ति की इच्छा है वो इस कुंड में स्नान करें, उनकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है।
नेपाली घाट
इस घाट का सही नाम ललिता घाट है। इसे नेपाली घाट भी कहते हैं ।इसका नाम राजा महेंद्र सिंह की माता जी के नाम पर ललिता घाट पड़ा। इस घाट पर काठवाला मंदिर स्थित है, जिसका निर्माण 19वीं शताब्दी में नेपाल के राजा राणा बहादुर शाह ने करवाया था। कहते हैं राजा राणा बहादुर शाह 1800 से 1804 ईस्वी तक बनारस में निर्वासन में रहे और उन्होंने खुद को “स्वामी निर्गुणानंद” की उपाधि दी थी। अपने निर्वासन के दौरान, उन्होंने काठमांडू के प्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर की प्रतिकृति बनारस में बनाने का निर्णय लिया। हालाँकि मंदिर का निर्माण उनके बनारस में रहने के दौरान शुरू हुआ था लेकिन यह मंदिर अपनी पूर्णता को प्राप्त न हो सका। जब मंदिर का निर्माण चल रहा था, तब राजा राणा बहादुर शाह नेपाल लौट गए और वहां सन 1806 में उनकी हत्या कर दी गई। उसके 20 साल बाद उनके पुत्र विक्रम शाह देव ने मंदिर का निर्माण कार्य पूरा करवाया। माना जाता है कि घाट और मंदिर परिसर के निर्माण में लगभग 40 साल लगे।
सन 1902 ईस्वी में नन्ही बहू ने इस घाट को पक्का बनवाया था, और यह कार्य भी नेपाल के राजा के संरक्षण में हुआ था। नेपाली घाट वास्तव में ललिता घाट का दक्षिणी भाग है। नेपाली मंदिर भगवान शिव को समर्पित है और हिंदुओं के लिए इसका बहुत धार्मिक महत्व है। यह मंदिर नेपाली वास्तुकला शैली में बनाया गया है, जिसमें जटिल लकड़ी की नक्काशी और लाल रंग के कंक्रीट का उपयोग किया गया है, जिसे नेपाल से लाया गया था। अपनी अनूठी लकड़ी की वास्तुकला के कारण इसे “काठवाला मंदिर” भी कहा जाता है।
इस प्रकार, बनारस का नेपाली घाट एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व का स्थान है, जो नेपाल और भारत के बीच गहरे संबंधों का प्रतीक है।
भोंसले घाट
भोंसले घाट का निर्माण नागपुर के मराठा राजा भोंसले ने करवाया था। इस घाट का नाम उन्हीं के परिवार के नाम पर पड़ा। इस प्राचीन धरोहर को सन 1795 में इस घाट की मरम्मत और जीर्णोद्धार कराया गया था। भोंसले घाट पर लक्ष्मीनारायण, यमेश्वर और यमादित्य नामक तीन प्रमुख मंदिर स्थित हैं।
इस घाट की वास्तुकला में मराठा और राजपूत शैलियों का मिश्रण देखने को मिलता है। घाट में पत्थर की एक भव्य संरचना है जिसमें छोटी कलात्मक खिड़कियाँ हैं। घाट के पत्थर के कदम नदी तक जाते हैं, जिन पर जटिल नक्काशी और देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। यह घाट मराठा शासकों द्वारा वाराणसी की जीवन रेखा में किए गए योगदान का एक और उदाहरण है। भोंसले घाट से गंगा नदी का विशेष रूप से सूर्योदय और सूर्यास्त के समय का दृश्य बहुत सुंदर दिखाई देता है। यह घाट पक्षियों को देखने के लिए भी एक अच्छी जगह है।
सिंधिया घाट
सिंधिया घाट, वाराणसी के प्रसिद्ध घाटों में से एक है, जिसका एक समृद्ध इतिहास है। इसने कई ऐतिहासिक घटनाओं और धार्मिक अनुष्ठानों को देखा है। यह मणिकर्णिका घाट के उत्तर में स्थित है।
इस घाट का निर्माण 1830 में सिंधिया परिवार की रानी बैजाबाई शिंदे द्वारा करवाया गया था, जो उस समय एक शक्तिशाली मराठा राजवंश था। इसी कारण इस घाट का नाम सिंधिया घाट पड़ा। इस घाट का हिन्दू धर्म में विशेष महत्व है। माना जाता है कि यहीं पर अग्नि देव का जन्म हुआ था।
इस घाट की एक प्रमुख विशेषता यहाँ स्थित आंशिक रूप से डूबा हुआ शिव मंदिर है। जिसे तिरछा शिव मंदिर भी कहते हैं । यह मंदिर, जिसे रत्नेश्वर शिव मंदिर भी कहा जाता है, घाट के अत्यधिक भार के कारण आंशिक रूप से गंगा नदी में धँस गया है। माना जाता है कि यह मंदिर लगभग 150 वर्ष पुराना है और इसका धँसना आज भी जारी है। सिंधिया घाट के ऊपर सिद्ध क्षेत्र की संकरी गलियों में काशी के कई महत्वपूर्ण मंदिर स्थित हैं।
अहिल्या बाई घाट
इस घाट का निर्माण होलकर साम्राज्य की महारानी अहिल्या बाई होलकर ने वर्ष 1785 में करवाया था। वह परम शिव भक्त थीं उन्होंने पूरे देश में मंदिर और घाटों का निर्माण करवाया। इस संरचना में होलकर साम्राज्य के स्थापत्य ककी झलक देखने को मिलती है । पूर्व में इस घाट का नाम गिरि घाट था लेकिन अहिल्याबाई ने इस घाट का जीर्णोधार कर इसे नया जीवन दिया अतः इस घाट को अहिल्याबाई के नाम से जाना जाने लगा ।
विजयनगर घाट
विजयनगर घाट, वाराणसी के केदार घाट के पास स्थित है। यह घाट अपने अद्वितीय दक्षिण भारतीय वास्तुकला शैली के लिए जाना जाता है, जिसे 1890 के दशक में विजयनगरम के शाही परिवार द्वारा पेश किया गया था। घाट में एक विशाल इमारत और दक्षिण भारतीय मंदिर-शैली के मुखौटे हैं, जो इसे वाराणसी के अन्य घाटों से अलग बनाते हैं। यह विजयनगरम शाही परिवार द्वारा बनाया गया था।
नमो घाट
नमो घाट काशी में गंगा नदी के तात पर उत्तर दिशा में स्थित एक पवित्र घाट है। नमो घाट विभिन्न त्योहारों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करता है। नमो घाट का एक हिस्सा जहाँ नमस्कार की मुद्रा में हाथ बने हैं, एक शाम का पिकनिक स्पॉट है। यह आधुनिक विकास और वाराणसी की सांस्कृतिक भावना का एक अद्भुत मिश्रण है। यहां शांत पथ, विशाल चलने वाले क्षेत्र और मनोरम दृश्य हैं। यह बच्चों के लिए वाटर स्पोर्ट्स और खेल के मैदानों के साथ एक परिवार के अनुकूल स्थान है। यहां कैफे और खाद्य स्टॉल स्वादिष्ट स्थानीय व्यंजन परोसते हैं। योग स्थल और हरे भरे स्थान विश्राम के लिए एक उत्कृष्ट वातावरण प्रदान करते हैं। इसमें व्हीलचेयर, एक्सेसिबल, पार्किंग और प्रवेश द्वार भी उपलब्ध हैं।
कैसे घूमें ?
काशी स्थित गंगा रिवर फ्रंट को पूर्णतः देखने के लिए आप समय निकाल कर आएं। इन सभी घाटों को देखने के दो तरीके हैं। पहला आप नौका विहार करते हुए इन घाटों को देखें, जो कि एक बार में नहीं होगा। इसे दो हिस्सों में कीजिए। मैंने एक सुबह मणिकर्णिका घाट के बराबर बाबा विश्वनाथ के गंगा द्वार से नौका ली और दक्षिण दिशा में अस्सी घाट तक की यात्रा की और यहाँ के घाटों को देखने का आनंद लिया। अगले दिन मैंने भोंसले घाट से नौका ली और उत्तर दिशा में नमो घाट तक की यात्रा की और घाट देखे।
सुबह सुबह इन घाटों को नौका विहार के माध्यम से देखना सबसे उत्तम है क्यूंकि सूर्योदय के बाद घाटों पर सूर्य की मखमली किरणें पड़ती हैं और सब साफ़ और सुन्दर दिखाई देता है।
गंगा रिवर फ्रंट का दूसरा सबसे बड़ा आकर्षण यहाँ होने वाली गंगा आरती है। वैसे तो गंगा आरती अब कई घाटों पर होने लगी है लेकिन सबसे बड़ी आरती दशाश्वमेध घाट पर होती है। लेकिन यहाँ भीड़ होती है, आप को सीट मिल जाए इसके लिए चार बजे से जाकर बैठना होता है। आरती शाम को 6:30 पर होती है।
इन घाटों को नजदीक से देखने के लिए अस्सी घाट से पैदल चलना शुरू करें। हर घाट पर अनेक गतिविधियाँ चल रही होती हैं। इनको देखते हुए आप पूरा गंगा रिवर फ्रंट एक्सप्लोर कर सकते हैं। साथ में आरामदायक जूते और पानी को बोतल ज़रूर लाएं। बाकी खाने पीने की काशी में कोई कमी नहीं हैं। काशी में आकार यहाँ के रंग में रंग जाइए तो आपको ये स्थान बहुत अपना सा लगेगा।
बनारस के घाट किसी रोमांच से भरे चलचित्र की भांति पल पल बदलते रहते हैं। हर घाट कुछ अलग द्दृश्य प्रस्तुत कर रहा होता है। यहाँ सुबह का नज़ारा अलग और रात का नज़ारा बिलकुल ही अलग होता है।
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